मैंने कई साल पहले ऑस्ट्रेलिया के एक किशोर के साथ काम किया था। यह किशोर डॉक्टर और सर्जन बनना चाहता था, लेकिन उसके पास पैसा नहीं था; न ही उसने हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी की थी। ख़र्च निकालने के लिए वह डॉक्टरों के ऑफिस साफ करता था, खिड़कियाँ धोता था और मरम्मत के छुटपुट काम करता था। उसने मुझे बताया कि हर रात जब वह सोने जाता था, तो वह दीवार पर टंगे डॉक्टर के डिप्लोमा का चित्र देखता था, जिसमें उसका नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। वह जहाँ काम करता था, वहाँ वह डिप्लोमाओं को साफ करता और चमकाता था, इसलिए उसे मन में डिप्लोमा की तस्वीर देखना या उसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं था। मैं नहीं जानता कि उसने इस तस्वीर को देखना कितने समय तक जारी रखा, लेकिन उसने यह कुछ महीनों तक किया होगा। जब वह लगन से जुटा रहा, तो परिणाम मिले। एक डॉक्टर इस लड़के को बहुत पसंद करने लगा। उस डॉक्टर ने उसे औज़ारों को कीटाणुरहित करने, इंजेक्शन लगाने और प्राथमिक चिकित्सा के दूसरे कामों की कला का प्रशिक्षण दिया। वह किशोर उस डॉक्टर के ऑफिस में तकनीकी सहयोगी बन गया। डॉक्टर ने उसे अपने खर्च पर हाई स्कूल और बाद में कॉलेज भी भेजा। आज
दिसम्बर, 1864 में कार्ल मार्क्स ने 'प्रथम अंतर्राष्ट्रीय मजदूर सभा' का गठन किया। इसी के माध्यम से उन्होंने शेष विश्व के श्रमिक वर्ग से संगठित होने का आह्वान किया। उनका कहना था कि यदि श्रमिक वर्ग को अपने अधिकार प्राप्त करने हैं तो उन्हें संगठित होना ही होगा।
वास्तव में कार्ल मार्क्स मजदूर वर्ग के मसीहा थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सामाजिक उत्थान और मजदूर वर्ग को उनका अधिकार दिलाने के लिए समर्पित कर दिया।
मार्क्स ने समाजवाद का सिद्धांत तो दिया ही, साथ ही अर्थशास्त्र से सम्बंधित अनेक सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया। सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में दिए गए उनके महत्त्वपूर्ण योगदान को आज 'मार्क्सवाद' के रूप में याद किया जाता है।
कार्ल मार्क्स के पिता हर्शल मार्क्स एक वकील थे, जो यहूदी परिवार से सम्बंध रखते थे। हर्शल मार्क्स के पिता और भाई यहूदी समुदाय के पुरोहित थे और उनकी पत्नी हॉलैंड के उस परिवार से सम्बंधित थीं, जहां यहूदियों की पुरोहिताई का कार्य होता था।
कार्ल के पिता हर्शल को यहूदियों से नफरत थी, उन पर फ्रांस की महान विभूतियों रूसो और वॉल्टेयर के विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ा था, वे यहूदी से प्रोटेस्टेंट ईसाई बन गए। इसके साथ-साथ उन्होंने अपना नाम भी बदलकर हेनरिक रख लिया जिसकी वजह से उन्हें पर्सिया (Persia) में वकालत करने का एक बेहतरीन मौका मिल गया।
यही वजह थी कि यहूदी से ईसाई बन जाने पर हर्शल मार्क्स या हेनरिक पर से प्रतिबंध हट गए थे और वे सभी सहूलियतें उन्हें मिल गई थीं, जो पर्सिया में प्रत्येक ईसाई को मिल रही थीं।
हेनरिक एक ईमानदार, मेहनती और दृढ़ विचारों वाले व्यक्ति थे। उनमें राष्ट्रवाद की भावना कूट-कूटकर भरी थी। वे एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी थे। हेनरिक के व्यक्त्तित्त्व का कार्ल मार्क्स पर गहरा प्रभाव पड़ा।
आरम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद कार्ल ने अक्टूबर, 1835 में बोन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। कार्ल के पिता भी चाहते थे कि कार्ल भी उन्हीं की तरह वकील बने। इसी वजह से कार्ल को कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए बोन विश्वविद्यालय में प्रवेश दिलाया गया था।
अध्ययन की इस अवधि में कार्ल की जेनी नामक एक संजीदा और खूबसूरत युवती से सगाई हो गई। जेनी कार्ल की सहपाठी और उनकी बड़ी बहन सोफी की सहेली थी। कार्ल और जेनी दोनों ही एक-दूसरे से प्रभावित थे। हालांकि जेनी कार्ल से उम्र में बड़ी थीं, लेकिन उम्र उनके प्यार के बीच कोई रुकावट नहीं बनी।
एक साल तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद कार्ल आगे की पढ़ाई के लिए बर्लिन चले गए। वे जिस पुस्तक का भी अध्ययन करते थे, उसका उद्धरण और सारांश भी अवश्य लिखते थे। अध्ययन और लेखन प्रक्रिया की भूख ने उन्हें हीगेल तक पहुंचा दिया। उन दिनों पर्सिया में हीगेल के विचारों का खूब बोल-बाला था और फिर सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके विचारों को सरकारी संरक्षण प्राप्त था। अतः कार्ल मार्क्स हीगेल के विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। गम्भीर बीमारी के चलते ही 10 मई, 1838 को कार्ल के पिता हेनरिक की मृत्यु हो गई।
पूंजीवाद की वजह से ही मजदूर आंदोलन की शुरुआत हुई। हिगेल की अपनी एक बड़ी विशेषता यह थी कि वे एक नई तरह के विचारक थे और उन्होंने ही सर्वप्रथम प्रतिपादित किया था कि प्रकृति और समाज का विकास कभी भी दिशाहीन नहीं होता, क्योंकि इनकी एक निश्चित प्रकृति हुआ करती है।
कार्ल अत्यंत प्रतिभाशाली, चतुर एवं चालाक थे। उनमें चीजों को समझने एवं परखने की विलक्षण प्रतिभा थी। अत्यंत प्रतिभा के धनी होने के कारण ही वे हीगेलपंथियों के 'डॉक्टर क्लब' के महत्त्वपूर्ण सदस्य बन गए थे। इस क्लब में उनकी गहरी पैठ थी। हर कोई उन्हें हीगेल की तरह महत्त्व देता था।
कार्ल पी-एच.डी. करने के लिए बहुत उत्साहित थे। अतः पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपना शोध ग्रंथ भी पूरा कर लिया था। इस संदर्भ में उनका विषय था, 'डेमोक्रीट्स और एपीक्यूरस के प्रकृति दर्शनों में भेद। एपीक्यूरस के विचारों ने कार्ल को वैचारिक ऊर्जा जरूर दी। जबकि डेमोक्रीट्स का दर्शन भौतिकवादी था। उनके अनुसार प्रत्येक घटना का कोई-न-कोई कारण होता है। उनका यह भी मानना था कि चीजें सदैव अपना स्वरूप बदलती रहती हैं।
कार्ल की शोधयात्रा का खुला विरोध हुआ। वैसे भी उन्हें इस बात का पता था कि उनके और उनके शोधग्रंथ के साथ न्याय नहीं हो पाएगा। इसी बात को देखते हुए कार्ल ने अपना शोध ग्रंथ बोन विश्वविद्यालय में न प्रस्तुत कर जेना विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया। 15 अप्रैल, 1841 को आशानुरूप कार्ल ने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
उस समय की पर्सिया सरकार हर प्रकार की उन्नति की दुश्मन थी। अतः सरकार ऐसे प्राध्यापकों को ढूंढ़ रही थी, जो तरक्की के लिए बदलाव के विरोधी थे। अतः कार्ल के प्राध्यापक बनने में यह समस्या सबसे बड़ी बाधा थी। इस प्रकार कार्ल न तो पिता की इच्छानुसार बोन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बन सके और न वकील। अंततः प्राध्यापक बनने का इरादा भी कार्ल ने अपने हृदय से निकाल दिया।
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