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मन ही प्रधान है, स्वामी है, सुख-दुख का कारण है #धम्मपद💫1

मन सभी धर्मों, कर्मों, प्रवृतियों का अगुआ है। सभी कर्मों (धर्मों) में मन पूर्वगामी है। मन ही प्रधान है, प्रमुख है, सभी धर्म (चैत्तसिक अवस्थाएं) पहले मन में ही पैदा होती हैं। मन सभी मानसिक प्रवृतियों में श्रेष्ठ है, स्वामी है। सभी कर्म मनोमय है। मन सभी मानसिक प्रवृतियों का नेतृत्व करता है क्योंकि सभी मन से ही पैदा होती है।  जब कोई व्यक्ति अशुद्ध मन से, मन को मैला करके, बुरे विचार पैदा करके वचन बोलता है या शरीर से कोई पाप कर्म (बुरे कर्म) करता है, तो दुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही हो लेता है जैसे बैलगाड़ी खींचने वाले बैलों के पैरों के पीछे-पीछे चक्का (पहिया) चलता है। मन सभी प्रवृतियों, भावनाओं का पुरोगामी है यानी आगे-आगे चलने वाला है। सभी मानसिक क्रियाकलाप मन से ही उत्पन्न होते हैं। मन श्रेष्ठ है, मनोमय है। मन की चेतना ही हमारे सुख-दुख का कारण होती है। हम जो भी फल भुगतते हैं, परिणाम प्राप्त करते हैं। वह मन का ही परिणाम है। कोई भी फल या परिणाम हमारे विचार या मन पर निर्भर है। जब हम अपने मन, वाणी और कमों को शुद्ध करेंगे तभी दुखों से मुक्ति मिल सकती है। मन हमारी सभी प्रकार की भावनाओं, प्रव...

आपके विचार ही आपकी उपलब्धि है

आज के जीवन में अगर देखा जाए, तो नब्बे प्रतिशत जनसंख्या के पास यह सोचने का वक्त ही नहीं है कि वे जा कहां रहे हैं। अगर आप उनको रोककर पूछेंगे। तो उनका एक ही जवाब होगा, कि अभी हमारे पास समय नहीं है।
 
जबकि उनके जीवन का उद्देश्य अगर आप जानना चाहेंगे, तो आपको पता लगेगा कि उनके जीवन का उद्देश्य केवल मानवीय आवश्यकताओं का प्रयोग करते हुए जीवन बिताना है। न कि किसी नई चीज का आविष्कार करना है। 

और न ही उन्होंने यह जानने की कोशिश की, कि हमने आज तक जो समय बिताया है। उस समय के दरमियान हमने क्या हासिल किया है। अगर उनके जीवन का निष्कर्ष निकाले। तो आप उनके जीवन को शून्य दे सकते हैं, यही सत्य है। 

आज के जीवन में हर व्यक्ति अपने आपको ज्ञान से परिपूर्ण मानता है। लेकिन बुद्धिजीवी लोगों ने इसकी परिभाषा कुछ अलग ही तरीके से दी है। 

उनका मानना है कि आप जिस समाज में रहते हैं, आपके आसपास का वातावरण ही आपको काफी प्रभावित करता है। आप उस वातावरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। आप उन्हीं में अपने आपको सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं। क्योंकि आपका दायरा केवल आपने ही निर्धारित किया है, किसी और ने नहीं।

बुद्धिजीवी लोगों ने बुद्धि के बारे में अनेकों तर्क प्रस्तुत किए हैं, उनके अनुसार, आप किसी एक विषय में पारंगत हो सकते हैं। लेकिन सभी विषयों का ज्ञान होना आपकी वैचारिकता से परे है। 

आपकी बुद्धि का विस्तार तब होता है। जब आपकी बुद्धि के साथ आपकी कमाई का विस्तार होता है। आपकी वैचारिक प्रस्तुति का विस्तार होता है। आपकी प्रसिद्धि का विस्तार होता है। आपके जीवन में नई नई उपलब्धियां आपका इस्तकबाल करती हैं। 

आपने आज तक जीवन में जो कुछ हासिल नहीं किया, वह सब कुछ हासिल होने लगता हैं। आप एक आम आदमी से एक खास आदमी में तब्दील हो जाते हैं। जिनकी जरूरत हर व्यक्ति को होती है। 

हर कोई आपसे मिलना चाहता है। आपको सुनना चाहता हैं। आपसे सलाह लेना चाहता हैं। आपके ज्ञान का प्रभाव अपने ऊपर देखना चाहता हैं। आप जैसा बनना चाहता हैं।

ज्ञान को किसी भी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। आपने जितना हासिल किया उतना कम है। आज के जीवन में हर व्यक्ति अपने आपको परिपूर्ण मानता है। आप परिपूर्ण तब होते हैं। जब सभी आपके साथ रहने वाले, आपका सामाजिक सिस्टम आपको परिपूर्ण माने। क्योंकि परिपूर्णता उन्हीं से शुरू होती है, और उन्हीं पर जाकर खत्म होती है। 

आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि आप एक सामाजिक व्यक्ति है। जिसका जन्म ही समाज को कुछ देने के लिए हुआ है। आपको इस जीवन में अपने सामाजिक अस्तित्व का प्रमाण कुछ नए आविष्कार करके समाज को उपलब्ध कराना होना चाहिए।



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