मैंने कई साल पहले ऑस्ट्रेलिया के एक किशोर के साथ काम किया था। यह किशोर डॉक्टर और सर्जन बनना चाहता था, लेकिन उसके पास पैसा नहीं था; न ही उसने हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी की थी। ख़र्च निकालने के लिए वह डॉक्टरों के ऑफिस साफ करता था, खिड़कियाँ धोता था और मरम्मत के छुटपुट काम करता था। उसने मुझे बताया कि हर रात जब वह सोने जाता था, तो वह दीवार पर टंगे डॉक्टर के डिप्लोमा का चित्र देखता था, जिसमें उसका नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। वह जहाँ काम करता था, वहाँ वह डिप्लोमाओं को साफ करता और चमकाता था, इसलिए उसे मन में डिप्लोमा की तस्वीर देखना या उसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं था। मैं नहीं जानता कि उसने इस तस्वीर को देखना कितने समय तक जारी रखा, लेकिन उसने यह कुछ महीनों तक किया होगा। जब वह लगन से जुटा रहा, तो परिणाम मिले। एक डॉक्टर इस लड़के को बहुत पसंद करने लगा। उस डॉक्टर ने उसे औज़ारों को कीटाणुरहित करने, इंजेक्शन लगाने और प्राथमिक चिकित्सा के दूसरे कामों की कला का प्रशिक्षण दिया। वह किशोर उस डॉक्टर के ऑफिस में तकनीकी सहयोगी बन गया। डॉक्टर ने उसे अपने खर्च पर हाई स्कूल और बाद में कॉलेज भी भेजा। आज
जब हिटलर पहली बार वियना गया, उस समय उसकी उम्र 16 वर्ष की भी नहीं थी, उस दौरान वियना में हिटलर की माता का देहांत हो गया, जब हिटलर ने "अकैडमी आफ फाइन आर्ट्स" की परीक्षा दी, तो हिटलर का मानना था, कि मैं चित्रकला के स्थान पर रेखाचित्र अर्थात वास्तुकला में अधिक योग्य हूं, जब उन्होंने परीक्षा का परिणाम सुना, कि वे परीक्षा में फेल हो गए हैं, तो उन्हें ऐसा लगा, जैसे उन पर बिजली टूट गई हो, उस समय वे दूसरी बार वियना आए थे।
कुछ ही दिनों में उन्हें एहसास हो गया, कि मुझे वास्तुकार बनना चाहिए, पर यह रास्ता बहुत कठिन था, मानवीय मापदंडों के अनुसार चित्रकला में प्रशिक्षण पाने का मेरा शौक अब संभावनाओं से परे लग रहा था, मेरी माता की मृत्यु के बाद मैंने अब निश्चय कर लिया कि मैं वास्तुकार ही बनूंगा,
मेरे पिता का चित्र हमेशा मेरे सामने रहता था जो एक गरीब मोची के बेटे थे उन्होंने अपने ही प्रयासों से सरकारी नौकरी प्राप्त की थी।
जैसे-जैसे मेरी मुश्किलें बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरे इरादे भी पक्के होते गए, और अंत में मेरे विश्वास की जीत हुई, मैं अपने जीवन के इस चरण का आभारी हूं, क्योंकि इस समय से ही मैं अधिक से अधिक मजबूत होता गया, और इतना अधिक शक्तिशाली बन गया, जैसा कि आज मैं आप लोगों के सामने हूं।
मैं तो जीवन की कठोर परिस्थितियों के प्रति अपना और भी अधिक आभार प्रकट करता हूं, क्योंकि इनकी कृपा से ही में जीवन में आराम के खोखलेपन से मुक्त हो सका, परंतु मुझे जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को सौंप दिया गया, वह एक प्रकार से मेरी नई मां थी, मैंने इसे दुर्भाग्य समझ कर इसके विरुद्ध विद्रोह भले ही किया हो, परंतु वास्तव में मैं बड़ा कृतज्ञ हूं, कि मुझे दीनता और गरीबी में धकेल दिया गया, और इस तरह मुझे मालूम हो गया, कि जीवन में मुझे किस प्रकार संघर्ष करना है।
इस काल में ही मुझे उन संकटों की पहचान हुई, जिनकी अब तक न तो मुझे कोई जानकारी थी, और न ही मुझे मालूम था, कि उनका अस्तित्व जर्मन लोगों के लिए कितना भयानक था, यह दो संकट थे, मार्क्सवाद और यहूदीवाद।
वियना में बिताया यह समय मेरे जीवन का सबसे अधिक उदासीनता का समय था, आज भी उसकी स्मृति मुझे अत्यंत उदासीन बना देती है, फ्रेसियन कस्बे में किस प्रकार मैंने गरीबी के 5 वर्ष बिताए, और उन 5 वर्षों में किस कठिनाई से मैं अपनी आजीविका कमाता था, यह सब बड़ा ही दु:खद है, मैं पहले दैनिक श्रमिक के रूप में, और फिर लघु चित्रों के निर्माता चित्रकार के रूप में जीवन जीता था, यह दोनों धंधे बहुत कम आय वाले थे।
इनसे होने वाली आय से तो मेरी भूख भी पूरी तरह नहीं मिटती थी, अब मैं क्या कहूं, यह भूख तो मेरी जीवन की स्थायी साथी बन गई, जिसने मुझे कभी भी नहीं छोड़ा, मेरी हर आवश्यकता के साथ जुड़ी रही, मेरे लिए पुस्तक खरीदने का अर्थ था, आने वाले दिनों में भूखा रहना।
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