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मन ही प्रधान है, स्वामी है, सुख-दुख का कारण है #धम्मपद💫1

मन सभी धर्मों, कर्मों, प्रवृतियों का अगुआ है। सभी कर्मों (धर्मों) में मन पूर्वगामी है। मन ही प्रधान है, प्रमुख है, सभी धर्म (चैत्तसिक अवस्थाएं) पहले मन में ही पैदा होती हैं। मन सभी मानसिक प्रवृतियों में श्रेष्ठ है, स्वामी है। सभी कर्म मनोमय है। मन सभी मानसिक प्रवृतियों का नेतृत्व करता है क्योंकि सभी मन से ही पैदा होती है।  जब कोई व्यक्ति अशुद्ध मन से, मन को मैला करके, बुरे विचार पैदा करके वचन बोलता है या शरीर से कोई पाप कर्म (बुरे कर्म) करता है, तो दुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही हो लेता है जैसे बैलगाड़ी खींचने वाले बैलों के पैरों के पीछे-पीछे चक्का (पहिया) चलता है। मन सभी प्रवृतियों, भावनाओं का पुरोगामी है यानी आगे-आगे चलने वाला है। सभी मानसिक क्रियाकलाप मन से ही उत्पन्न होते हैं। मन श्रेष्ठ है, मनोमय है। मन की चेतना ही हमारे सुख-दुख का कारण होती है। हम जो भी फल भुगतते हैं, परिणाम प्राप्त करते हैं। वह मन का ही परिणाम है। कोई भी फल या परिणाम हमारे विचार या मन पर निर्भर है। जब हम अपने मन, वाणी और कमों को शुद्ध करेंगे तभी दुखों से मुक्ति मिल सकती है। मन हमारी सभी प्रकार की भावनाओं, प्रव...

वियना में हिटलर का कष्टदायी बचपन

जब हिटलर पहली बार वियना गया, उस समय उसकी उम्र 16 वर्ष की भी नहीं थी, उस दौरान वियना में हिटलर की माता का देहांत हो गया, जब हिटलर ने "अकैडमी आफ फाइन आर्ट्स" की परीक्षा दी, तो हिटलर का मानना था, कि मैं चित्रकला के स्थान पर रेखाचित्र अर्थात वास्तुकला में अधिक योग्य हूं, जब उन्होंने परीक्षा का परिणाम सुना, कि वे परीक्षा में फेल हो गए हैं, तो उन्हें ऐसा लगा, जैसे उन पर बिजली टूट गई हो, उस समय वे दूसरी बार वियना आए थे। 

कुछ ही दिनों में उन्हें एहसास हो गया, कि मुझे वास्तुकार बनना चाहिए, पर यह रास्ता बहुत कठिन था, मानवीय मापदंडों के अनुसार चित्रकला में प्रशिक्षण पाने का मेरा शौक अब संभावनाओं से परे लग रहा था, मेरी माता की मृत्यु के बाद मैंने अब निश्चय कर लिया कि मैं वास्तुकार ही बनूंगा,
मेरे पिता का चित्र हमेशा मेरे सामने रहता था जो एक गरीब मोची के बेटे थे उन्होंने अपने ही प्रयासों से सरकारी नौकरी प्राप्त की थी।

जैसे-जैसे मेरी मुश्किलें बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरे इरादे भी पक्के होते गए, और अंत में मेरे विश्वास की जीत हुई, मैं अपने जीवन के इस चरण का आभारी हूं, क्योंकि इस समय से ही मैं अधिक से अधिक मजबूत होता गया, और इतना अधिक शक्तिशाली बन गया, जैसा कि आज मैं आप लोगों के सामने हूं। 

मैं तो जीवन की कठोर परिस्थितियों के प्रति अपना और भी अधिक आभार प्रकट करता हूं, क्योंकि इनकी कृपा से ही में जीवन में आराम के खोखलेपन से मुक्त हो सका, परंतु मुझे जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को सौंप दिया गया, वह एक प्रकार से मेरी नई मां थी, मैंने इसे दुर्भाग्य समझ कर इसके विरुद्ध विद्रोह भले ही किया हो, परंतु वास्तव में मैं बड़ा कृतज्ञ हूं, कि मुझे दीनता और गरीबी में धकेल दिया गया, और इस तरह मुझे मालूम हो गया, कि जीवन में मुझे किस प्रकार संघर्ष करना है।

इस काल में ही मुझे उन संकटों की पहचान हुई, जिनकी अब तक न तो मुझे कोई जानकारी थी, और न ही मुझे मालूम था, कि उनका अस्तित्व जर्मन लोगों के लिए कितना भयानक था, यह दो संकट थे, मार्क्सवाद और यहूदीवाद।

वियना में बिताया यह समय मेरे जीवन का सबसे अधिक उदासीनता का समय था, आज भी उसकी स्मृति मुझे अत्यंत उदासीन बना देती है, फ्रेसियन कस्बे में किस प्रकार मैंने गरीबी के 5 वर्ष बिताए, और उन 5 वर्षों में किस कठिनाई से मैं अपनी आजीविका कमाता था, यह सब बड़ा ही दु:खद है, मैं पहले दैनिक श्रमिक के रूप में, और फिर लघु चित्रों के निर्माता चित्रकार के रूप में जीवन जीता था, यह दोनों धंधे बहुत कम आय वाले थे।

इनसे होने वाली आय से तो मेरी भूख भी पूरी तरह नहीं मिटती थी, अब मैं क्या कहूं, यह भूख तो मेरी जीवन की स्थायी साथी बन गई, जिसने मुझे कभी भी नहीं छोड़ा, मेरी हर आवश्यकता के साथ जुड़ी रही, मेरे लिए पुस्तक खरीदने का अर्थ था, आने वाले दिनों में भूखा रहना।

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